ये नाम किसी मिथक के पन्नों के पात्र का गवहीं या यूँ ही लोगों के मुँह कहा जाने वाला नाम नहीं था, और न ही, मैंने उपन्यासकार महाश्वेता देवी की लेखनी से प्रेरित होकर कोई ऐसा नाम गढ़ने की ज़बरदस्ती कोशिश की थी। फिर द्रोपदी को मै दुपदी कैसे बना पाता।
रही बात महाकाव्यों से किसी पात्र के नाम और चरित्र को नए आयामों में ढालना और उन्हें आज की आवाज़ देकर महापात्र बनाना; तो वो तो मेरे वश की बात न थी, क्योंकि ऐसा करने से मेरे ज्ञान का छिछलापन साफ़ पानी में पड़े पत्तों की तरह दिखने लगता, और आपका ध्यान मुख्य किरदार से हटकर मेरे आज के नथली को बाल्मीकि और कृष्ण द्वैपायन के महाकाव्यों के व्यापक दृष्टान्तों में खंघालने लगता।
फिर तो जनाब आप वो समझने लगते, जो शायद मैं कभी कहना ही नहीं चाहता था।
हमारी नथली आदिवासी ज़रूर थी लेकिन उसे देखा मैंने लखनऊ में हज़रतगंज की सड़कों पर था। वहीं मै रोड के किनारे बैठकर मैंगो शेक का लुत्फ़ उठा रहा था। जब मैंने नथली को देखा तो मेरे मुंह में नीम सी कड़ुआहट भर आयी क्योंकि मैंने मुँह के स्वाद और नथली की ज़िंदगी में, जो उसे एक ऐसा करने पर मज़बूर कर रही थी, उसमे काफी विरोधाभास पाया था।
क्या वो बच्ची भी इसी दुनिया कि थी जिससे हम लोग आते हैं, और क्या हमारे जैसे वह भी हांड-माँस की ही बनी थी। क्या उसे पता होगा कि वह जिस देश में रहती है उसका नाम हिंदुस्तान है! उसके राष्ट्रध्वज का रंग केसरिया, सुफ़ेद और हरा है, उसपर बना चक्र विकास का प्रतीक है! क्या ये बातें उसके माता-पिता ने उसे बताया होगा? ये सारे प्रश्न मेरे दिमाग़ में उस लड़की को देखते हुए सहसा कौंध गए।
मैं तो वहां इसलिए बैठा था क्योंकि लखनऊ काफ़ी हाउस की कॉफ़ी कुछ देर पहले मेरे लिए…एक नई आफत खड़ी करके मेरे मौज़ूदा हालात पर मुस्कुरा रही थी। हुआ यूं कि मेरे एक अज़ीज़ दोस्त, जो वोडाफ़ोन के जोनल ऑफिस में एम्प्लॉयी थे…उन्होंने मुझसे वहां कुछ एक घंटे तक इंतज़ार करने के लिए कहा था। मेरे पॉकेट में उस समय तकरीबन तीस…और पीछे की जेब के सिक्कों को मिला-जुलाकर चालीस रुपये हो रहे थे। एक और दस रुपये की नोट कहीं बटुए में तीन चार मर्तवा मुड़ी किसी खाने में पड़ी थी, जिसके बारे में अभी मैं पूर्णता अनभिज्ञ था। खैर, प्लास्टिक मनी के रूप में मेरे वॉलेट में स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया के दो ए. टी. एम. कार्ड्स पड़े थे जिसमे मेरे पिता जी कभी-कभी रुपये भेज दिया करते थे, और दूसरा विश्वविद्यालय की शाखा का जिसमे मेरा स्टाइपेंड आया करता था।
लखनऊ वो भी हज़रतगंज में जिसे ‘हार्ट ऑफ़ लखनऊ’ के ख़िताब से नवाज़ा जा चुका हो…वहां सबसे सस्ती जगह की तलाश में सबसे किफ़ायती कॉफी हाउस ही सूझी और दिमाग़ में इसलिए भी आया क्योंकि इलाहाबाद में कॉफ़ी हाउस की एक कॉफ़ी उन दिनों सोलह रुपये में मिल जाया करती थी।
ये सोचकर, तपाक से मैंने अपनी डायरी और शोध विषय से सम्बंधित कुछ एक लिफ़ाफ़े में रखे ज़रूरी किताबों के ज़ेरॉक्स जो कि मैंने ‘भारतीय दार्शनिक अनुसंधान परिषद’ लखनऊ के लाइब्रेरी से प्राप्त किया था। उसको लेकर एक ख़ाली मेज़ ढूंढकर वहां बैठ गया। गर्मी ज़्यादा होने की वजह से रुमाल निकालकर पहले मैंने अपने माथे पर आये पसीने को पोछा, फिर चारो तरफ अपनी दृष्टि दौड़ाई, अंदर की दशा देखकर बड़ी निराशा हुई।….ख़ुद से ही मैंने प्रश्न किया।…. ‘मॉडर्निटी एंड यंग इंडिया’ जहाँ एंटीक्विटी की कोई कदर नहीं!…हम कौन सा स्वर्णिम युग बना रहे हैं…ये कॉफ़ी हाउस है!
“ये तो किसी नए रेस्त्रां की तरह लग रहा है…फिर बाहर कॉफ़ी हाउस क्यों लिखा है ?”
मन के अंदर का द्वन्द शांत नहीं हुआ था तब तक बेटर आ धमका…”क्या लेंगे श्रीमान ?”
मैंने कहा , “कॉफ़ी पिला दीजिए।”
पहले मुझे उसने एक ग्लास ठंडा पानी दिया।
…पानी ख़त्म करने के बाद नथली की ज़िंदगी की फ़िल्म मेरे आँखों के सामने एडिट होकर ठीक अमेरीकी फ़िल्म निर्देशक ओर्सोन वेल्स के फ़िल्म ‘सिटीजन केन’ की तरह आ रही थी। जब से मैंने विश्व सिनेमा को देखना और समझना शुरू किया है तब से अपने दृष्टिकोण में कॉफ़ी टेक्निकल हो गया हूँ और मेरी आँख कैमरे की तरह काम करने लगी है, सो…नथली की इमेज ने दिल को फिर से कचोटना शुरू कर दिया…।
फिर क्या था, मैंने डायरी उठायी और नथली की ज़िंदगी को अपने टूटे-फूटे काव्यात्मक शिल्प और अल्हड़ लहज़े में ढालने की कोशिश करने लगा। जो अभी हज़रतगंज की शाम को, जिसे मैंने किसी कोठे की तबायफ़ की तरह खनकते हुए सुना था, उस शाम-ए -अवध की रौशनी, जो नवाब वाज़िद अली शाह के बादशाहत के नीव पर टिकी थी…उस नई शाम नथली के दर्द से मातम मानाने वाली थी।
मैंने अपनी कविता का टाइटल “डांस लाइक नतालिया” रखा। कविता अंग्रेज़ी में लिखी लेकिन ये कहानी पता नहीं क्यों दिल किया तो ठान लिया कि हिंदी में ही लिखूंगा…नहीं तो नथली की बात नहीं हो पायेगी। और, मैंने आख़िरकार उसने वादा भी तो किया है कि मैं तुम्हारी कहानी पूरी दुनिया को सुनाऊंगा इसलिए अन्य भाषाओं में भी अनुवाद करूँगा पहले हिंदी में ही कही जाए।
पहली पंक्ति थी …
“वाज़ सी नताली पोर्टमैन?
ऑर म्यूज़ लाइक स्वान
डांसिंग ऑन द सिल्वर क्वाइन … “
हाँ, नथली मेरे लिए हॉलीवुड फ़िल्म “ब्लैक स्वान” की अभिनेत्री नताली पोर्टमैन से कम न थी…तकरीबन नव-दस साल की, ऐसी लग रही थी जैसे मानो, मैंने चिथड़े और दर्द में चीख़ते म्यूज़ को एक हंसिनी के वेश में, एक रुपये के सिक्के पर अपनी देह का पूरा वजन उठाये, पैर के अंगूठे पर नटराज की भांति नाच रही थी…आश्चर्य ! सौंदर्य के आठों रस, श्रिंगार छोड़कर, जिसे शायद औसाद और आर्थिक तंगी ने लगभग ख़त्म ही कर दिया था। उसके नृत्य का आकर्षण कम नहीं था। न चाहकर भी, कला की देवी माँ सरस्वती ने उसे हिन्दुस्तान के सरज़मी का नताली पोर्टमैन होने का आशीर्वाद तो दे ही दिया था। खोट तो हमारी आँखों में थी साहब, जो हम लोग उसे आज उसके हालत पर मरने के लिए छोड़ रहे थे।
वहां भी मेरी बुरी आदत ने मेरा पीछा नहीं छोड़ा। मैंने अपने से ही पूछ लिया।
वाज़ सी रियली एन इंडीयन नताली पोर्टमैन ?
या नथली… कीचड़ में खिली तूलिप?
या कोई गोंड, पनिका, खासी-गारो जनजाति। कौन थी?
ये दर्द भरा खेल ख़त्म करने के बाद उसने अपनी डफली सबके आगे बढ़ाई…आते-जाते आम पब्लिक ने एक-दो रुपए के कुछ सिक्के उसमें छोड़ दिये…फिर उसने वहाँ खड़ी चौपहिया वाहनों की तरफ, जिसमे ऑडी से लेकर बी. एम. डब्लू. लक्ज़री सीरीज़ तक की गाड़ियां थीं। उसमे बैठे लोगों की ओरे जब उसने अपनी डफ़ली बढ़ायी तो उन्होंने अपनी-अपनी गाड़ियों के शीशे चढ़ा लिए।
कुछ देर बाद लोगों की भीड़ वहां से तितर-बितर हो गई तब मैंने अपने आपको नथली के करीब जाने दिया…जाकर पहले उसका नाम पूछा…वह एक किनारे बैठकर, अपने पैर के अंगूठे को हाथ से सहला रही थी, अंगूठे के दर्द से कराहते हुए अपने आँखों के आंसू को रोकने की असफ़ल कोशिश की ज़द्दोजहद के बीच उसने अपना नाम बताया…नथली।
मेरी कविता मेरे कॉफी के आख़िरी शिप के साथ ख़त्म हो चुकी थी… मैंने बेटर से बिल मांगा।
बंद रैक्सीन के फ़ाइल को खोलकर जब मैंने बिल देखा तो उसमे पचास रुपये लिखे थे।
जो उस एक प्याले कॉफी का बिल था। मैंने उसने पूछा, “क्यों जी ए.टी. एम. कार्ड स्वाइप हो जायेगा?”
जी नही…”बेटर ने ज़वाब दिया।”
मैंने फिर थोड़ा रुककर उसने कहा… ओ. के. थोड़ी देर बाद आइये।
अब मैं अपने आप को बड़े असमंजस्य में पा रहा था। थोड़ा दिमाग़ लगाने के बाद मैं अपनी डायरी और लिफ़ाफ़े को वहीं मेज़ पर रखकर बाहर निकल आया और फिर से अपने पर्स का अच्छी तरीके से मुआइना करने लगा। थोड़ी मशक़्क़त के बाद, देखा एक किनारे तीन-चार मर्तवा मुड़ी दस रुपये की एक नोट पड़ी थी जिस पर लिखा था…
ट्यूज़डे, १० /०९ /२०१३, ऑन यौर्स बर्थ’डे
‘आई सीक रिडेम्शन’
और दूसरी तरफ़ ‘विद लव एंड ग्रेटीट्यूड एवेंचुअली यौर्स’पहली बार मुझे किसी का प्यार बहुत सस्ता और झूठा लगा, और दूसरी तरफ़ नाथली के दर्द ने मुझे बता दिया कि आज भी तुम्हारे पास दिल है।